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हिंदू पुरोहित संघ की आधिकारिक वेबसाइट में आपका स्वागत है।

पुरोहित वह वर्ग है जो अपने  गृहस्थ यजमानों   के लिए विभिन्न अनुष्ठान, कर्मकांड, पूजा और अन्य आध्यात्मिक कर्म करते हैं  । पुरोहित का तात्पर्य  है – “पुरुतः हितं चिंतयति” अर्थात जो अपने यजमान के हित की चिंता करे । पुरोहित और यजमान के बीच सम्बन्ध गुरु-शिष्य का होता है। पुरोहितों को पंडित, अर्चक, पुजारी, महाजन, ओझा, ब्राह्मण आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है।  पुरोहित हिन्दू समाज को एक संरचना में पिरोकर पारिवारिक संबंधों को वैधानिकता प्रदान करते हैं। साथ ही समाज की आध्यात्मिक एवं धार्मिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं तथा जन जान को वैदिक सतमार्ग की ओर उन्मुख करते हैं।। किन्तु इतनी महत्वपूर्ण भूमिका होने पर भी हिन्दू समाज इस वर्ग को उचित स्थान नहीं दे पाया है। 'हिन्दू पुरोहित संघ' इस वर्ग के सदस्यों का एक संघ है। ‘हिन्दू पुरोहित संघ की स्थापना वर्ष 2008 में हुई। इस संस्था को 29.01.2013 में एक सोसाइटी के रूप में ‘सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1973’ के अन्तर्गत रजिस्ट्रर्ड किया गया। ज्ञातव्य है कि ‘पुरोहित संघ’ शब्द भी इस संगठन के परिचय हेतु पर्याप्त था किन्तु यह संगठन वैश्विक रूप लेगा,अतः हिन्दू शब्द जोड़ा गया, जो इसे व्यापक पहुंच प्रदान  करता है । यह पूर्णतः एक धर्मार्थ (non–profit) संस्था है । 

 

पुरोहित संघ का मानना है कि पुरोहित तंत्र हिन्दू समाज की रीढ़ है जो सनातन ज्ञान, कर्म, भक्ति  की गंगा प्रवाहित करता है और इस वृत्ति का लोप व्यक्ति व हिंदू समाज के लिए घातक है, जो विघटन एवं तनाव लाएगा।यहाँ पर  हिन्दू का तात्पर्य सनातन धर्म से है जिसके अन्तर्गत पौराणिक वैदिक धर्म, आर्य समाजी वैदिक धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा सिख धर्म आदि भारत में जन्मे हिन्दवी धर्म  आते हैं।

 

पुरोहिती कोई व्यवसाय नहीं अपितु पवित्र वृति है। दुर्भाग्य से पुरोहिती वृत्ति करने वाले अनेक परिवारों की नई पीढ़ी ने यह वृत्ति छोड़े दी है ; पिता से संतति को  प्राक्षिण वाली परम्परा  भी विघटित हो गयी है और समाज में विशेषकर विद्वान पुरोहितों की अत्यन्त कमी आ गई है। पुरोहितों की अनुपलब्धता से कर्मकांड व संस्कार आदि का सतत लोप हो रहा है, जो चिंता का विषय है । दुर्भाग्य से इस ओर किसी का ध्यान भी नहीं जा रहा है ।सनातन धर्म कोई अंधविश्वास नहीं अपितु एक आचार है, जो परिवार में सिखाया जाता है। शास्त्र कहता है - आचार हिनः पशुभिः समानाः - अर्थात सनातन धर्म के आचरण के बिना  व्यक्ति  पशु सामान है। संस्कार, कर्म, उत्सव, कथा वाचन, तिथिओं का अनुसरण, आदि पारिवारिक आयोजन हैं । जहाँ वर्ण  व्यवस्था आज दूसरा रूप ले चुकी  है किन्तु परिवार व आश्रम व्यवस्था को हम नहीं बचा पा रहे हैं , जो  व्यक्ति  में बढ़ते तनाव व् विषाद का कारण है। कुल-परिवार में टूटन के चलते नारी, जो संस्कार व् परिवार की आधारशिला है, की स्थिति व् भूमिका भी शिथिल हो रही है। कुल गुरु, कुल पुरोहित , कुल देवी आदि का लोप हो रहा है। ये सभी जुड़े हैं और हम इस दुष्चक्र में फंस चुके हैं।

 

शास्त्र कहता है – ‘संघे शक्ति कलयुगे’ अर्थात कलियुग में संगठित होने पर ही शक्ति मिलती है। हिन्दू समाज कैसे अपने गौरव को पुनः प्राप्त करके विश्व को सनातन धर्म के महान मूल्यों के  प्रति जागरूक करे, संस्कार व कर्मकांड की पवित्र सांस्कृतिक को उनके पुरातन रूप में पुनः स्थापित कर पाए,  यही इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है। हिन्दू समाज को विघटन से  बचाकर पारिवारिक मूल्यों पर आधारित समाज की व्यवस्था पुनः स्थापित हो। कुल परिवार व्यवस्था में टूटन हिन्दू समाज के सम्मुख वज्रपात की भांति है। समाज को कुरीतियों, व्यसन, विषाद, विषमता, जातिवाद,एवं विकारों से बचाना आवश्यक है। अंतिम उद्देश्य संपूर्ण विश्व में राम-राज्य की स्थापना है। ऐसा राज्य जो करुणा, वात्सल्य से परिपूर्ण हो, पोषक हो, जो रुग्ण, असहाय, अशक्त की चिंता करे तथा जीव, जगत और लोक कल्याण का संकल्प ले। राम राज्य, जो न्याय व समत्व की वेदी पर स्थित हो। सुरासुर जगत में यह भी आवश्यक है कि  सज्जनों का उत्कर्ष तथा आसुरों का विनाश हो।

सनातन धर्म आधारित संस्कार व कर्म के निर्वाह  के बिना उपरोक्त उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। परिवर्तित समाज तथा नगरीय परिवेश में महर्षि वेद व्यास  द्वारा प्रदत्त तंत्र को उसके मूल रूप में पुनः स्थापित करने के लिए पुरोहितों का एक सुव्यवस्थित संगठन हो। जिससे कि कोई भी हिन्दू परिवार चाहे वह किसी जाति, वर्ग व श्रेणी का हो कर्मकाड व संस्कार से वंचित न रहे, यह पुरोहितों का देविक दायित्व है । प्राचीन ऋषि मुनियों ने वंचितों को  सनातन धर्म में लाने का आह्वान किया है और  इसके लिए उन्होंने अथक परिश्रम किये हैं ।  सर्वसुलभ,कल्याणकारी, पावन ,  निर्लोभी प्राचीन पुरोहित व्यवस्था पुनः स्थापित हो। एक समावेशी, सुदृढ़ एवं सार्थक व्यवस्था, जो पुरोहितों को भी समुचित प्रतिष्ठा एवं आजीविका प्रदान कर सके। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें समाज धर्मभीरु हो तथा पुरोहित संगठित व प्रशिक्षित हों; और उनके प्रशिक्षण की भी व्यवस्था हो तथा वे सामाजिक व धार्मिक उन्नयन हेतु समर्पित हों। पुरोहित संघ का मानना है कि कतिपय धर्म  ग्रंथ काल कवलित हुए हैं और इस काई को निकालकर उन्हें वेदोक्त निर्मल परिपूर्णता प्रदान करना भी आवश्यक  है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु हिन्दू पुरोहित संघ ने पिछले दशक में अनेक प्रयास किये हैं।

 

पुरोहित जन वैदिक काल से चली आ रही महान सनातन हिन्दू संस्कृति के वाहक रहे हैं। वे व्यक्ति व समाज को जागृत करने, समाज सुधार तथा उन्नयन के सूत्र रहे हैं  जिससे कि मनुष्य तीनों ऋणों से मुक्त होकर ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगत हिताय च’ का वैदिक संकल्प पूर्ण कर सके। वेद यह भी  कहता है कि ‘धर्मेणहीना पशुभिः समानाः। समाज की रीढ़ के रूप में पुरोहिती वृत्ति को पावन रूप में  स्थापित करने हेतु हमें एकजुट होना है। हमें ‘योगक्षेम’ की इस पुरातन संस्कृति को पुनर्जीवित करना है।

पुरोहित संघ निस्वार्थ व्यक्तियों द्वारा इस यज्ञ में अर्पण भाव से संचालित है। इसमें जो भी दान राशि प्राप्त होती है उसे लक्ष्य प्राप्ति हेतु उपयोग में लाया जाता है। पुरोहिती एक महान  सेवा है और पुरोहित का उत्थान समाज का उत्थान है। आप  भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार पुरोहित संघ को  दान देकर पुण्य के भागी बनें ; इससे जुड़कर जिस रूप में भी हो सके पुरोहिती के उत्थान हेतु सहयोग करें। शास्त्रों के अनुसार पुरोहित दान के श्रेष्ठ पात्र हैं।

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